क्या आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया था? एक ऐतिहासिक और तार्किक विश्लेषण
क्या शून्य का उपयोग
"आविष्कार" से पहले नहीं था?
"आविष्कार" और
"प्रयोग" में अंतर होता है। शून्य का
प्रयोग व्यवहार में और मौखिक गणनाओं में आर्यभट्ट से पहले भी होता रहा था, लेकिन उसका गणितीय रूप में मानकीकरण (जैसे दशमलव
प्रणाली में स्थान का निर्धारण) मुख्य रूप से आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त जैसे
गणितज्ञों द्वारा किया गया।
1. शत (100), सहस्त्र (1000) जैसे
शब्द वेदों और उपनिषदों में पहले से मौजूद हैं:
ऋग्वेद, जो कि आर्यभट्ट से हजारों वर्ष पहले का माना जाता है, उसमें भी "शत" (100) और
"सहस्त्र" (1000) जैसे शब्दों का उपयोग किया गया
है।
प्रश्न उठता है: यदि शून्य नहीं था,
तो इन अंकों का अर्थ क्या था?
2. रामायण और महाभारत में शून्य आधारित संख्याएँ:
- रावण के 10 सिर,
- कौरवों के 100 भाई,
- अर्जुन के रथ की गति "10,000
गज प्रति मुहूर्त" जैसी संख्याएँ।
ये संख्याएँ बिना "शून्य" के प्रयोग के न लिखी जा सकती थीं, न समझी जा सकती थीं।
3. अंक प्रणाली का विकास:
भारत की प्राचीन लिपियों जैसे ब्रह्मी
लिपि में भी शून्य जैसे चिह्नों का प्रयोग मिलता है।
बख़तरपुर ताम्रपत्र (3वीं शताब्दी) में
भी संख्याओं में स्थानिक मान प्रणाली का संकेत मिलता है।
4. अंतरराष्ट्रीय शोध और मान्यता:
- प्रसिद्ध गणितज्ञ जॉर्ज जोसेफ ने अपनी पुस्तक The
Crest of the Peacock में कहा
है कि शून्य का प्रयोग भारत में बहुत पहले से मौखिक परंपराओं में मौजूद था।
- यूनानी और रोमन सभ्यताओं के पास स्थानिक मान प्रणाली
नहीं थी, जिससे संकेत
मिलता है कि भारत में यह विशेषता पहले से थी।
यदि रामायण और महाभारत त्रेता और द्वापर युग के ग्रंथ हैं,
और उनमें 10, 100, 1000 जैसी संख्याओं का
खुलकर प्रयोग हुआ है, तो दो संभावनाएँ बनती हैं:
- या तो शून्य का प्रयोग आर्यभट्ट से बहुत पहले ही
हो चुका था और वह भारतीय संस्कृति में गहराई से समाहित था।
- या फिर ये ग्रंथ आर्यभट्ट के बाद लिखे गए,
और बाद में उन्हें प्राचीन युगों से जोड़ दिया गया।
दोनों ही
स्थितियों में यह कहना कि "आर्यभट्ट
ने शून्य का आविष्कार किया" — एक अधूरी, भ्रामक और तर्कहीन बात है।
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ऐतिहासिक और वैदिक प्रमाण:
1. वेदों में संख्याएँ:
- ऋग्वेद, यजुर्वेद
आदि में "शत", "सहस्त्र" जैसे
शब्दों का प्रयोग मिलता है।
यह दर्शाता है कि शून्य की अवधारणा शब्दों में मौजूद थी, भले ही उसका गणितीय चिन्ह बाद में विकसित हुआ हो।
2. रामायण और महाभारत की संख्याएँ:
- रावण के 10 सिर,
- कौरवों के 100 भाई,
- अर्जुन के रथ की गति 10,000 योजन प्रति मुहूर्त —
ये सब बिना "शून्य" के उपयोग के न तो समझे जा सकते हैं, न लिखे।
3. ब्रह्मी लिपि और स्थानिक मान प्रणाली:
- तीसरी सदी ईसा पूर्व की ब्रह्मी लिपि में स्थान
आधारित संख्या पद्धति के प्रमाण मिलते हैं।
- इससे पहले भी ताम्रपत्रों में संख्यात्मक व्यवस्थित
लेखन पाया गया है।
4. बौद्ध और जैन ग्रंथों में शून्य का संकेत:
- जैन ग्रंथों में अनंत, शून्यता और संख्या के विश्लेषण वर्षों पहले से मौजूद हैं।
- यह दिखाता है कि शून्य का विचार धार्मिक और दार्शनिक
परंपराओं में रचा-बसा था।
5. ब्रह्मगुप्त का योगदान (7वीं सदी):
- ब्रह्मगुप्त ने शून्य को गणितीय रूप में नियमबद्ध किया
— जैसे किसी संख्या को शून्य से जोड़ना, गुणा करना आदि।
यह आर्यभट्ट के बाद हुआ।