📚 जब नियोग धर्म था — सोचिए, क्या आज भी होता?

भारत में जब कोई दूसरों के ग्रंथों की आलोचना करता है — कहता है कि “वह ग्रंथ अमर्यादित है”, “उसमें अनैतिक बातें हैं” — तब सवाल यह उठता है:

क्या आपने खुद अपने धार्मिक ग्रंथ को उसी नजर से देखा है?


👀 चलिए एक झलक लेते हैं – महाभारत की “नियोग परंपरा” पर

  1. पति की आज्ञा: “जाओ, पर पुरुष से संतान लो”

पांडु, जो संतान उत्पन्न करने में अक्षम थे, ने स्वयं अपनी पत्नियों कुंती और माद्री से कहा:

"अगर स्त्री अपने पति की आज्ञा से किसी अन्य पुरुष से संतान उत्पन्न नहीं करती, तो वह पाप की भागी होती है।"

यह धर्म था — "नियोग धर्म"

आज अगर कोई महिला ऐसा करे तो क्या समाज उसे “धार्मिक” मानेगा या चरित्रहीन?


  1. कुंती और माद्री – देवताओं से संबंध

महाभारत में बताया गया है कि कुंती ने यमराज, वायु और इन्द्र से संतान प्राप्त की।
माद्री ने अश्विनीकुमारों से।

और यही संतानें कहलाए – युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव।

क्या आज भी यह व्यवस्था स्वीकार की जाएगी कि कोई स्त्री “ईश्वर” या “देवता” से संतान प्राप्त कर ले?


  1. सत्यवती और व्यास – पुत्र उत्पन्न करने का “कर्तव्य”

जब राजा विचित्रवीर्य की मृत्यु हो गई और कोई उत्तराधिकारी नहीं था, तब सत्यवती ने अपने पुत्र व्यास को बुलाया — और कहा:

"भारतवर्ष नष्ट हो रहा है। किसी तेजस्वी पुरुष को उत्पन्न करो।"

व्यास ने विचित्रवीर्य की विधवाओं — अंबिका और अंबालिका — से नियोग किया।
इससे जन्म हुआ — धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर का।

अगर यही बात आज किसी महिला से कही जाए कि "राष्ट्र के भविष्य के लिए, किसी योग्य पुरुष से संतान प्राप्त करो", तो क्या समाज इसे “उत्कृष्ट विचार” मानेगा?


🔍 प्रश्न उठते हैं…

  • क्या नियोग सिर्फ “धर्म” के नाम पर शरीर का उपयोग था?
  • क्या स्त्रियों की स्वीकृति जरूरी थी, या सिर्फ पुरुषों की “आज्ञा”?
  • क्या आज की नारी इन परंपराओं को “आधार” बनाकर अपनी स्वतंत्रता मांग सकती है?

सोचिए…

जब हम दूसरों की बातों में “अश्लीलता” खोजते हैं, तो क्या हम अपने धर्मग्रंथों की उन बातों को भी उतनी ही बारीकी से पढ़ते हैं?

या फिर…

हम सिर्फ वही सुनना और देखना पसंद करते हैं जो हमारी श्रद्धा को झटका न दे — लेकिन दूसरों के लिए हमारा दृष्टिकोण कठोर और आलोचनात्मक होता है।


 निष्कर्ष:

👉 धर्मग्रंथ चाहे कोई भी हो — उसमें इतिहास, परंपरा, और समाज की जटिलता होती है।
👉 लेकिन आलोचना की दृष्टि अगर चुनिंदा हो, तो वह सत्य की खोज नहीं, बल्कि अंधश्रद्धा होती है।

क्या हम अपने ग्रंथों को भी उतने ही खुले मन से पढ़ सकते हैं, जितना हम दूसरों के ग्रंथों को कटघरे में खड़ा करते हैं?